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क्या नारों-भाषणों में सिमट गया है अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस?

क्या नारों-भाषणों में सिमट गया है अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस?

– ब्रजेश कुमार

कई बार शोर के बीच आवाजों का न होना एक खामोशी का होना भी होता है और खामोशी के अपने मायने होते हैं। हर साल अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस नाम पर एक दिवस आता है और जिसमें हम खुद को नारों, भाषणों, सेमिनारों में समूचा उड़ेल देते हैं। बड़े-बड़े दावे, बड़ी-बड़ी बातें, बड़ी-बड़ी कल्पनाएं…। लेकिन इन बड़ी बातों के पीछे का यथार्थ इतना क्रूर है कि एक कोई घटना तमाचे की तरह गाल पर पड़ती है और हम फिर बेबस, असहाय, अकिंचन से हो जाते हैं। बहुमुखी प्रतिभा के धनी गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था, हम लोगों के लिए स्त्री केवल गृहस्थी के यज्ञ की अग्नि की देवी नहीं अपितु हमारी आत्मा की लौ है। परन्तु सबकुछ आज इसके विपरीत होता जा रहा है। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस हम सभी का अस्मिता दिवस है।
जब से भारत में सामाजिक जीवन की शुरुआत हुई है तब से कई सदियां आई और गई, समय ने लोगों की सोच और माहौल दोनों को बदला पर अभी भी महिलाओं पर होती हिंसा में किसी तरह की कमी नहीं आई है। समय महिलाओं पर होती हिंसा का गवाह है। समय ने बेबस और लाचार महिलाओं को अलग-अलग दुखों (लिंग भेदभाव, शारीरिक शोषण, दमन, छेड़छाड़, निरादर) से गुजरते हुए देखा। यह वह भारतीय समाज है जहां महिलाओं को देवी समान पूजा जाता है जबकि महिलाएं खुद को बेसहारा और बेबस महसूस करती हैं। वेदों में नारी को मां कहा गया है जिसका मतलब है जो जन्म देने के साथ-साथ लालन-पोषण भी करती है। वही मां इस पुरुष-प्रधान सोच वाले समाज में खुद को दबा-कुचला हुआ मानती है। जब आधुनिक विश्व के इतिहास में सर्वप्रथम 1908 में लगभग 15000 महिलाओं ने न्यूयॉर्क शहर में एक विशाल जुलूस निकालकर अपने काम करने के घंटों को कम करने, बेहतर तनख्वाह और वोट डालने जैसे अपने अधिकारों के लिए अपनी लड़ाई शुरू की थी तो इस आंदोलन से तत्कालीन सभ्य समाज में महिलाओं की स्थिति की हकीकत सामने आई थी। उससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि अगर वोट देने के अधिकार को छोड़ दिया जाए तो पुरुषों के मुकाबले महिलाओं के वेतन और समानता के विषय में भारत समेत सम्पूर्ण विश्व में महिलाओं की स्थिति आज भी चिंतनीय है।
लोक जीवन में स्त्रियों की आपबीती उन्हीं की जुबानी जानने के लिए ‘संस्कृतसूक्ति सागर’ में संग्रहीत एक श्लोक की ओर ध्यान जाना विषयांतर नहीं होगा-
कार्येपणि विलम्बनं परगृहे श्वश्रूर्न समन्यते
शंकामारचयन्ति यूनि भवनं प्राप्ते मिथो यातरः।
वीथीनिर्गमनेडपि तर्जयति च क्रद्धा ननान्दा पुनः
कष्टं हन्त मृगीदृशां पतिगृहं प्रायेग कारागृहम्।।
अर्थात् यदि किसी काम से थोड़ी देर पड़ोस में रूक जाना पड़े तो सास जी को बर्दाश्त नहीं। कोई लड़का मिलने आ जाए तो देवरानी-जेठानी बात का बतंगड़ बना देंगी। गली में पांव रखने से ही नन्द जली-कटी सुनाती है। स्त्रियों के लिए पतिगृह कारागृह की तरह की कष्टप्रद होता है। यह है स्त्री का जीवनानुभव। ऐसी ही पतिगृह के लिए भेजी जाने वाली शकुन्तला को कण्व जो सीख देते हैं, वह रही-सही कसर पूरी कर देती है- “भर्तुर्विप्रकृताडपि रोषणतया मा स्म प्रतीपं गमः“ अर्थात् पति के क्रोध करने और रूष्ठ होने पर भी कभी उसके विपरीत मत जाना। संस्कार के रूप में बैठी और बैठायी गई ये हिदायतें स्त्री के जीवन को और मुश्किल भी बनाती है एवं बिना किसी अवज्ञा या प्रतिकार के जैसे-तैसे जिंदगी काट लेने के लिए बाध्य भी करती हैं। इन आचार संहिताओं से तनिक भी इधर-उधर होने वाली स्त्री के सिर पर लांछन ही लांछन है और इन्हीं के कठोर अनुशासन में स्त्री की निजता होम होती रहती है।
भारत विश्व का सबसे बड़ा विकासशील देश है। इसमें दो राय नहीं है कि भारत तेजी से विकास कर रहा है। पर इस इक्कीसवीं सदी में भी कई घृणित प्रथाओं का जारी रहना हम सबके लिए शर्मनाक है। प्रश्न उठता है कि इस आधुनिक समय में भी सदियों से चली आ रही अमानवीय प्रथाएं अस्तित्व में क्यों है? इस पर विचार करने से ज्ञात होता है कि इसकी जड़ें हमारी सामाजिक व्यवस्था में हैं।

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