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बिहार मे एक ऐसा शक्तिपीठ जहां मंत्र से ही मूर्छित हो जाते हैं बकरे

बिहार मे एक ऐसा शक्तिपीठ जहां मंत्र से ही मूर्छित हो जाते हैं बकरे
देश में जितनी भी शक्तिपीठ हैं, सबमें बलि देने की प्रथा है और ये प्रथा सदियों से चली आ रही हैं. लेकिन बिहार में एक मंदिर ऐसा भी है जहां माता को आज भी बलि नहीं दी जाती है. कैमूर जिले में स्थित मां मुण्डेश्वरी धाम को शक्तिपीठ में से एक माना गया है लेकिन इस शक्तिपीठ में आज भी बलि देने की सबसे अनोखी प्रथा ही इस देवीस्थल को बाकी सबसे से अलग और अनोखा बनाता है. आज भी इस देवी स्थल पर बलि देने की सात्विक परंपरा है. यानी की इस मंदिर में रक्तहीन बलि दी जाती है.कैमूर जिला के भगवानपुर के पंवरा पहाड़ी पर स्थित मुंडेश्वरी धाम स्थित है. इस मंदिर की ऐसी मान्यता है कि जो भी भक्त सच्चे मन से अपनी मनोकामनाएं लेकर आता है वो कभी खाली हाथ नहीं लौटता. मां भक्तों की सारी मनोकामनाएं पूरी करती हैं. और यही वजह है कि हर दिन यहां श्रद्धालुओं की भारी भीड़ होती है. दूसरे शक्तिपीठ की तरह यहां भी बलि देने की प्रथा है लेकिन यहां रक्तहीन बलि दी जाती है यानी एक भी खून का बूंद देवी स्थल पर नहीं गिरता.


माता की पूजा के दौरान जो भी भक्त बलि अर्पित करते हैं उन्हें काटा नहीं जाता बल्कि मंदिर के पुजारी अक्षत-पुष्प से उसका संकल्प कर देते हैं. इसके बाद उसे भक्त को वापस दे दिया जाता है. लेकिन शक्तिस्थल पर बकरे की हत्या नहीं की जाती.
मुंडेश्वरीधाम की महिमा वैष्णो देवी और ज्वाला देवी जैसी मानी जाती है. काफी प्राचीन माने जाने वाले इस मंदिर के निर्माण काल की जानकारी यहां लगे शिलालेखों से पता चलती है. कुछ इतिहासकारों के मुताबिक, मंदिर परिसर में मिले शिलालेखों के अनुसार इस मंदिर का निर्माण 635-636 ईस्वी के बीच का हुआ था. मुंडेश्वरी के इस अष्टकोणीय मंदिर का निर्माण महराजा उदय सेन के शासनकाल का माना जाता है.बता दें कि वर्ष 2007 में न्यास परिषद ने इस धाम को अधिग्रहित कर लिया है. बताया जाता है कि दुर्गा के वैष्णवी रूप को ही मां मुंडेश्वरी धाम में स्थापित किया गया है. और यहां मां की प्रतिमा वराही देवी के रूप में स्थित हैं जो महिष पर सवार हैं.इस मंदिर का मुख्य द्वार दक्षिण दिशा की ओर है. 608 फीट ऊंची पहाड़ी पर बसे इस मंदिर के विषय में कुछ इतिहासकारों का मत है कि यह मंदिर 108 ईस्वी में बनवाया गया था. माना जाता है कि इसका निर्माण शक शासनकाल में हुआ था. यह शासनकाल गुप्त शासनकाल से पहले का समय माना जाता है.मंदिर परिसर में पाए गए कुछ शिलालेख ब्राह्मी लिपि में हैं, जबकि गुप्त शासनकाल में पाणिनी के प्रभाव के कारण संस्कृत का प्रयोग किया जाता था. यहां 1900 वर्षों से पूजन होता चला आ रहा है. मंदिर का अष्टाकार गर्भगृह आज तक कायम है. गर्भगृह के कोने में देवी की मूर्ति है जबकि बीच में चर्तुमुखी शिवलिंग स्थापति है.

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